Friday, September 30, 2005
बैंगलौर का ट्रेफ़िक
(खेद है कि "ट्रेफ़िक" के लिए उपयुक्त हिंदी शब्द न ढूँढ पाया, आशा है शुद्ध भाषा-भाषी क्षमा करेंगे और ग़लती सुधारेंगे.)
फोर्ड चचा ने जब पहली मोटर-गाडी बनाई होगी तब यह ख्याल उन्हें छू कर भी न गया होगा की किस जिन्न को वो पूरी मानवता पर छोड दिये हैं. माना कि सहूलियत के लिहाज़ से अत्यन्त उपयोगी आविष्कार है, परन्तु साला ट्रेफ़िक में फंसे तो पूरे दिमाग़ का दही हो जाता है! खास करके जब कि ट्रेफ़िक बैंगलौर जैसे महानगर का हो तो मौला ही आपका मालिक है. अगर मुम्बई "सपनों का शहर" है, तो बैंगलौर सपना देखने वालों का शहर है - नतीज़तन आधे लोग आधी नींद में ही गाडी चला रहे होते हैं! गौरतलब बात ये है कि यहाँ कार वाले लोग कार मोटरसायकल की तरह चलाते हैं - दाँये-बाँये लहराते हुये, इधर-उधर घुसाते हुये. मोटरसायकल वाले हज़रात उसे सायकल की तर्ज़ पर फुटपाथ पर चढाते नहीं शरमाते. सायकल वाले बिल्कुल पदचालकों माफ़िक सब कानून, सब सिग्नल की धज्जियाँ उडाते घूमते हैं. बचे बेचारे पैदल-प्यादे, वो बेसहारे, मन में दुखडे लिए ट्रेफ़िक के बीच रेंगते नज़र आते हैं.
अगर कोई समुदाय यहाँ की सडकों का बेताज़-बादशाह है, तो वे हैं ऑटोरिक्शा चालक.
सडक की उल्टी तरफ अगर कोई गाडी दौडाने का माद्दा रखता है,तो वे हैं ऑटोरिक्शा चालक.
खचाखच ठसी हुई सडक पर अगर किसी का ज़िगरा है U-टर्न मारने का, तो वे हैं ऑटोरिक्शा चालक.
इनकी तारीफ में तो जितने क़सीदे पढे जायें कम हैं. अभी कल-परसों यहाँ ऑटोरिक्शा संघ ने हडताल कर दी. उस दिन तो मैंने ऊपरवाले से और कुछ भी माँगा होता, मिलता. दफ़्तर जाते समय मेरी पल्सर तो सडक पर यूँ चौकडियाँ भर रही थी, मानो मक्खन में छुरी! पर ये जन्नत अगले ही दिन मुझसे छिन गयी और कमबख्त पीले मूषकमुखी तिपहिये फिर से ट्रेफ़िक का बैण्ड बजाने लगे.
फोर्ड चचा का अगला श्राप है - बस. बस - बडा ही छोटा शब्द है, शुरू हुआ कि बस खत्म. किन्तु बस शब्द ही छोटा है, बाकी सब बडा है. बडा वाहन, बडी क्षमता और बडी मुसीबत! यहाँ के बसचालकों ने तो मानो सम्पूर्ण बैंगलौर को भयमुक्त करने का बीडा उठाया है - जो माई का लाल इनके सामने सडक पार करने की चेष्टा भी करता है, मृत्यु से आँखें चार कर बैठता है. उसके बाद कैसा डर, किसका डर. जीवन के क्षणभँगुर होने का आभास करवाती हैं यहाँ की बसें. कुछ सौ मीटर तक खुली सडक क्या दिखी, बसचालक न पैदल जनता का सोचते हैं, न जर्जर बस की, बस हवा से बातें करने लगते हैं. कभी-कभी तो एक अजूबा ही लगता है कि ललिता पवार की उम्र की बसें, प्रियँका चोपडा सरीखी अठखेलियाँ कर रही हैं.
अन्त में यहाँ का प्रशासन - एक वो धर्मराज युधिष्ठिर था जिसने द्रोपदी की साडी उतरवा दी थी, एक यहाँ धरम-राज है जिसमें यहाँ की सडकों को उधेडा जा रहा है. दिल्ली की तर्ज़ पर हवाई-पुल (flyovers) बनाने का निश्चित तो कर दिया है, पर श्रद्धा का टोकरा खाली ही है. परिणाम यह कि बहुत सी सडकें खोदी तो गयीं, पर उसके बाद प्रशासन उसे ऐसे भूल गया जैसे सौरव गाँगुली बल्ला पकडना भूल गया है. पहले भी सडकें हेमामालिनी के कपोलों सी तो नहीं थीं, पर खुदाई के बाद तो मानो कोई हिमालयन रैली का ट्रेक तैयार हो गया हो. कभी-कभी के लिये ऐसे जोखिम के काम सुहाते हैं, रोज़-रोज़ यह झेलना तो अत्यन्त दुष्कर हैं. गाडियोँ की वाट लगती है सो अलग!
फोर्ड चचा ने जब पहली मोटर-गाडी बनाई होगी तब यह ख्याल उन्हें छू कर भी न गया होगा की किस जिन्न को वो पूरी मानवता पर छोड दिये हैं. माना कि सहूलियत के लिहाज़ से अत्यन्त उपयोगी आविष्कार है, परन्तु साला ट्रेफ़िक में फंसे तो पूरे दिमाग़ का दही हो जाता है! खास करके जब कि ट्रेफ़िक बैंगलौर जैसे महानगर का हो तो मौला ही आपका मालिक है. अगर मुम्बई "सपनों का शहर" है, तो बैंगलौर सपना देखने वालों का शहर है - नतीज़तन आधे लोग आधी नींद में ही गाडी चला रहे होते हैं! गौरतलब बात ये है कि यहाँ कार वाले लोग कार मोटरसायकल की तरह चलाते हैं - दाँये-बाँये लहराते हुये, इधर-उधर घुसाते हुये. मोटरसायकल वाले हज़रात उसे सायकल की तर्ज़ पर फुटपाथ पर चढाते नहीं शरमाते. सायकल वाले बिल्कुल पदचालकों माफ़िक सब कानून, सब सिग्नल की धज्जियाँ उडाते घूमते हैं. बचे बेचारे पैदल-प्यादे, वो बेसहारे, मन में दुखडे लिए ट्रेफ़िक के बीच रेंगते नज़र आते हैं.
अगर कोई समुदाय यहाँ की सडकों का बेताज़-बादशाह है, तो वे हैं ऑटोरिक्शा चालक.
सडक की उल्टी तरफ अगर कोई गाडी दौडाने का माद्दा रखता है,तो वे हैं ऑटोरिक्शा चालक.
खचाखच ठसी हुई सडक पर अगर किसी का ज़िगरा है U-टर्न मारने का, तो वे हैं ऑटोरिक्शा चालक.
इनकी तारीफ में तो जितने क़सीदे पढे जायें कम हैं. अभी कल-परसों यहाँ ऑटोरिक्शा संघ ने हडताल कर दी. उस दिन तो मैंने ऊपरवाले से और कुछ भी माँगा होता, मिलता. दफ़्तर जाते समय मेरी पल्सर तो सडक पर यूँ चौकडियाँ भर रही थी, मानो मक्खन में छुरी! पर ये जन्नत अगले ही दिन मुझसे छिन गयी और कमबख्त पीले मूषकमुखी तिपहिये फिर से ट्रेफ़िक का बैण्ड बजाने लगे.
फोर्ड चचा का अगला श्राप है - बस. बस - बडा ही छोटा शब्द है, शुरू हुआ कि बस खत्म. किन्तु बस शब्द ही छोटा है, बाकी सब बडा है. बडा वाहन, बडी क्षमता और बडी मुसीबत! यहाँ के बसचालकों ने तो मानो सम्पूर्ण बैंगलौर को भयमुक्त करने का बीडा उठाया है - जो माई का लाल इनके सामने सडक पार करने की चेष्टा भी करता है, मृत्यु से आँखें चार कर बैठता है. उसके बाद कैसा डर, किसका डर. जीवन के क्षणभँगुर होने का आभास करवाती हैं यहाँ की बसें. कुछ सौ मीटर तक खुली सडक क्या दिखी, बसचालक न पैदल जनता का सोचते हैं, न जर्जर बस की, बस हवा से बातें करने लगते हैं. कभी-कभी तो एक अजूबा ही लगता है कि ललिता पवार की उम्र की बसें, प्रियँका चोपडा सरीखी अठखेलियाँ कर रही हैं.
अन्त में यहाँ का प्रशासन - एक वो धर्मराज युधिष्ठिर था जिसने द्रोपदी की साडी उतरवा दी थी, एक यहाँ धरम-राज है जिसमें यहाँ की सडकों को उधेडा जा रहा है. दिल्ली की तर्ज़ पर हवाई-पुल (flyovers) बनाने का निश्चित तो कर दिया है, पर श्रद्धा का टोकरा खाली ही है. परिणाम यह कि बहुत सी सडकें खोदी तो गयीं, पर उसके बाद प्रशासन उसे ऐसे भूल गया जैसे सौरव गाँगुली बल्ला पकडना भूल गया है. पहले भी सडकें हेमामालिनी के कपोलों सी तो नहीं थीं, पर खुदाई के बाद तो मानो कोई हिमालयन रैली का ट्रेक तैयार हो गया हो. कभी-कभी के लिये ऐसे जोखिम के काम सुहाते हैं, रोज़-रोज़ यह झेलना तो अत्यन्त दुष्कर हैं. गाडियोँ की वाट लगती है सो अलग!
Comments:
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सच्चाई का मनोरंजक और सटीक विवरण है - मेरे विचार मे भारत के कई अन्य बडे होते शहरों पर भी ये उतना ही लागू है जितना बैंगलोर पर.
हे वत्स, तुम व्यर्थ क्यों परेशान होते हो,क्यों व्यर्थ दूसरो को परेशान करते हो। बैंगलोर मे बसों को तो मोक्ष के लिये भेजा गया हैं, ये सब ईश्वर की महिमा है, बस के ड्राइवर तो 'बस' प्रभु के आदेश का पालन कर रहे हैं। वत्स क्या तुम्हे भी मोक्ष की प्राप्ति करनी है? बस अपने घर के पास से गुजरने वाले बस रूट का नम्बर बताओ। नम्बर बताओ, मोक्ष पाओ।
cud u plz help me out. i want to blog in hindi and i followed all the steps given at the sarvagya site. i changed the language setting for blogger. but still, when i try to compose a blog, all that i can see is the english letters. i have enable utf-8 encoding in my browser. this is a problem for both firefox and ie. plz plz help me.
ye sirf Banglore ka hi nahi varan Bharat ka sach hai....isko achha maan ke khush rahiye kyonki sarkaar ne kuch karna nahi hai....aane wale vakt me to aur bhi jyada aesi tesi hone wali hai....
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